…ये जिंदगी ना मिलेगी दोबारा, न खोएं हौसला
पढ़ाई या करियर के दबाव में बीते एक वर्ष में प्रदेश भर में 1000 से अधिक छात्रों ने आत्महत्या की
Sandesh Wahak Digital Desk/Abhishek Srivastava: बहुत कोशिश के बाद भी अब मुझसे कुछ हो नहीं पा रहा है। अब जीने की इच्छा नहीं है। पता है ये बुजदिल तरीका है। पर अब इसके सिवाय कोई रास्ता नहीं दिख रहा है। यह लिखकर बीटेक करने के बाद प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे छात्र विदित भार्गव ने फांसी लगा ली थी। परिजनों ने महानगर पुलिस को बताया कि विदित तीन चार दिन से परेशान चल रहा था, लेकिन पूछने पर वह कुछ बताता नहीं था। इसके बाद बटलर पैलेस में जेईई मेंस में नंबर कम आने के चलते जज के बेटे अजितेश त्रिपाठी ने आत्महत्या कर ली।
यह कोई पहला मामला नहीं था, जब किसी छात्र ने अपने जीवन में मिली पहली ठोकर के बाद मौत को गले लगा लिया हो। बीते एक वर्ष में प्रदेश भर में 1000 से अधिक छात्रों ने आत्महत्या की है। इनके पीछे की अधिकतर वजह पढ़ाई का प्रेशर या फिर पैरेंट्स की डांट फटकार है। छात्रों और उनके परिवार को सिर्फ एक बात समझने की जरूरत है कि…जिंदगी न मिलेगी दोबारा।
विद्यार्थियों पर पड़ने वाला तीन तरह का दबाव उन्हें आत्महत्या की तरफ ले जा रहा है। अगर सफल नहीं हुए तो मित्र मंडली क्या कहेगी, अभिभावक क्या सोचेंगे और करियर तो बीच में ही रह गया। इस बात से पैदा होने वाला तनाव रोजाना औसतन यूपी में 30 से अधिक विद्यार्थियों की जान ले रहा है। अधिकांश राज्यों में ऐसे मामले बढ़ते ही जा रहे हैं।
विभिन्न तरह के शोध और मनोचिकित्सकों की मानें तो तीन तरह का दबाव, जो उनके आसपास ही रहता है, उन्हें आत्महत्या के लिए मजबूर करता है। धीरे-धीरे यह दबाव डिप्रेशन में बदलता जाता है। यह लक्षण ज्यादातर 16 से 18 वर्ष और उससे ऊपर की आयु वाले छात्रों में देखे गए हैं। इनमें स्कूल-कालेज के छात्र और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में जुटे प्रतिभागी शामिल हैं। राजस्थान के कोटा में मेडिकल परीक्षा की तैयारी करने वाले कई छात्र-छात्राओं द्वारा कथित तौर से आत्महत्या किए जाने के पीछे बहुत हद तक ये तीन कारण देखने को मिले हैं।
इतने कठोर कदम उठाने का आखिर क्या है वजह
मित्र मंडली, करियर और अभिभावक, यह तीन तरह का दबाव, जो एक साथ चलता रहता है, हर किसी को नजर नहीं आता। इससे पीड़ित विद्यार्थी जब स्कूल-कालेज में होता है तो वह अंदर ही अंदर इस दबाव को बढ़ाता जाता है। इसके बाद अभिभावकों की बारी आती है। हालांकि सभी अभिभावक इस तरह का दबाव नहीं डालते हैं कि अगर बच्चा सफल नहीं हुआ तो सब खत्म हो जाएगा। वे अपने बच्चों को प्रोत्साहन देते हैं। लेकिन कई बार बच्चों को किसी तरह से जैसे, पड़ोसी द्वारा, रिश्तेदार से या अपने किसी दोस्त के मां-बाप से पता चल जाता है कि उसके मम्मी-पापा उसे लेकर क्या सोचते हैं। उसकी पढ़ाई लिखाई के लिए लोन लिया है या जमीन बेच दी है, जैसी बातें जब उसे मालूम पड़ती हैं तो वह दबाव में आ जाता है। इसके बाद वह पहले से कहीं ज्यादा मेहनत करने लगता है, लेकिन वही दबाव उसे घेरे रहता है। नतीजा, वह दबाव बाद में उसे आत्महत्या तक पहुंचा देता है। तीसरा, करियर में लक्षित सफलता नहीं मिलती है तो भी विद्यार्थी राह भटक जाते हैं।
डिप्रेशन को कर दिया जाता है नजर अंदाज
विद्यार्थियों पर पड़ने वाले इस दबाव को सभी नजरअंदाज कर देते हैं। परिवार और स्कूल प्रबंधन भी इसकी भयावह स्थिति को नहीं समझ पाता। विद्यार्थी खुद को हार का जिम्मेदार मानने लगते हैं। उसे खुद मालूम होता है, लेकिन वह इस धारणा के साथ आगे बढ़ता रहता है कि न तो उसे हार माननी है और न ही इलाज लेना है। इस बाबत वह खुद किसी को कुछ बताना भी नहीं चाहता। ये सभी स्थितियां धीरे-धीरे उसे डिप्रेशन के उच्च स्तर तक ले जाती हैं।
लड़कों की तुलना में लड़कियां ज्यादा मजबूत
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों की मानें तो लड़कियों की तुलना में लडक़ों ने लगभग दोगुनी संख्या में सुसाइड किया है, जो आसानी से अपनी जिंदगी खत्म कर रहे हैं जबकि महिलाओं के मामले में लड़कियों की संख्या ज्यादा है। पुलिस आंकड़ों की मानें तो लखनऊ में वर्ष 2023 से लेकर अब तक 60 से अधिक छात्रों ने अलग-अलग कारणों से जीवन लीला समाप्त कर ली। एनसीआरबी के आंकड़ों में प्रदेश की बात करें तो अलग-अलग जिलों में 1060 छात्रों ने सुसाइड किया है।
हाल ही में हुईं घटनाएं
- 22 मई- गोसाईगंज में 5वीं की छात्रा माही ने फांसी लगाई।
- 21 मई- रिवर फ्रंट से आठवीं की छात्रा गोमती में कूदी।
- 04 मई- महानगर में प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे विदित भार्गव ने फंदा लगाया।
- 25 अप्रैल- बटलर पैलेस में जिला जज के बेटे अजितेश त्रिपाठी ने फांसी लगाकर दी जान।
- 17 अप्रैल- पारा में बीए छात्र विशाल फंदे पर लटका।
- 09 अप्रैल- मडिय़ांव में प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे पूर्णांक शर्मा ने दी जान।
- 08 मार्च- वजीरगंज में बीए छात्रा तमन्ना ने मौत को गले लगाया।
- 28 फरवरी- अलीगंज में अच्छे अंक के तनाव में हाईस्कूल छात्र अवनीश कुमार सिंह ने फांसी लगाई।
- 26 फरवरी- विकासनगर में बीए छात्रा प्रिया ने फांसी लगाकर दी जान।
- 12 फरवरी- चौक में मोबाइल पर सुसाइड नोट लिखकर इंटर छात्र मो. दानियाल ने लगाई फांसी।
- 10 जनवरी- लविवि के तिलक गल्र्स हॉस्टल में बीएफए छात्रा अंशिका गुप्ता ने फांसी लगा दी जान।
बच्चों में अचानक होने वाले परिवर्तन पर नजर रखें अभिभावक
बच्चा अचानक निराश दिखने लगा हो, खामोश हो गया हो तो अभिभावकों को सचेत हो जाना चाहिए। किसी प्रकार की भावना शून्य की अवस्था, यानी कि न खुश माहौल में खुश दिखे और न ही कोई भाव चहरे पर दिखे। परिवार और दोस्तों से दूर रहने लगना भी एक बड़ा कारण है कि वह आत्महत्या कर सकता है। परीक्षा में अच्छे परिणाम के दबाव के बावजूद बेहतर रिजल्ट का न आना। शराब और अन्य नशा लेना शुरू कर देना या पहले से अधिक सेवन करना।
फेल होने पर तिरस्कार का रहता है डर, होती है सपोर्ट की जरूरत
छात्र जब परीक्षा में फेल हो जाते हैं तो उन्हें तिरस्कार का डर होता है। उन्हें डर सताता है कि उनके दोस्त, परिवार और आसपास के लोग क्या कहेंगे? इतना ही नहीं उन्हें लगता है फेल होने पर सिर्फ साल ही नहीं पूरी जिंदगी बर्बाद हो जाएगी। ऐसे वक्त में उन्हें अपने परिवार के भावनात्मक सपोर्ट की आवश्यकता होती है। यहां थोड़ी भी चूक हुई, तो दुर्घटना घट सकती है।
टीचर हों या अभिभावक, सभी को देना होगा ध्यान
छात्रों को इस स्थिति से बचाने के लिए सभी को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। खासतौर पर मां-बाप को इस दिशा में गंभीरता से सोचना पड़ेगा। अभिभावक अपने बच्चों के लगातार संपर्क में रहें। उन्हें हर तरीके से प्रोत्साहन दें। दबाव या डिप्रेशन का कोई भी लक्षण दिखे तो बिना कोई देरी किए डॉक्टर से संपर्क करें। ऐसे मामलों में काउंसलिंग बहुत काम आती है। अगर स्थिति बिगड़ गई है, तो आसानी से दवाओं के द्वारा उसका इलाज किया जा सकता है।
अभिभावकों के साथ-साथ टीचर की भी बड़ी जिम्मेदारी बनती है। अगर बच्चों में कोई बदलाव दिखे…जैसे गुमसुम, चिड़डि़ापन तो उसे नजरअंदाज नहीं करें। पढ़ाई का प्रेशर और माता-पिता की बढ़ती उम्मीदों का हर बच्चा सहन नहीं कर पाता है। मेंटल प्रेशर को दूर करने के लिए बच्चे फिजिकल एक्टिविटी के बजाए मोबाइल का ही सहारा ले लेते हैं। एक वजह एकल परिवार भी है। पहले संयुक्त परिवार होता था, लेकिन अब माता-पिता नौकरी पेशा होने के चलते बच्चे नौकरों के सहारे रहते हैं। इस वजह से वे अपनी बात किसी से कह नहीं पाते हैं। अभिभावकों को बच्चों को वक्त देना चाहिए।
डॉ. देवाशीष शुक्ला, चिकित्सा अधीक्षक
(कल्याण सिंह सुपर स्पेशलिटी कैंसर इंस्टीट्यूट) व वरिष्ठ मनोरोग चिकित्सक
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