यूपी चुनाव: पंचायत से लेकर विधानसभा और संसद तक मुस्लिम प्रतिनिधित्व घटा
सियासी शतरंज की बिसात पर नहीं की जा सकती मुस्लिम वोट बैंक की अनदेखी
संदेश वाहक डिजिटल डेस्क। यूपी चुनाव में मुस्लिम मतदाता लंबे समय तक किंगमेकर की भूमिका अदा करते रहे हैं, लेकिन वक्त के साथ सियासत ने ऐसी करवट ली कि राजनीति अल्पसंख्यक से हटकर बहुसंख्यक समुदायों के इर्द-गिर्द सिमट गई। इसके बावजूद सूबे की सियासी शतरंजी बिसात पर मुस्लिम वोट बैंक की अहमियत को अनदेखा नहीं किया जा सकता है।
यही वजह है कि कांग्रेस से लेकर सपा और बसपा ही नहीं बल्कि भाजपा भी मुस्लिमों को अपने पाले में लेने की कोशिश कर रही है। देश में मुस्लिमों की आबादी 16.51 फीसदी है तो यूपी में करीब 20 फीसदी मुसलमान यानि 3.84 करोड़ हैं।
एक तिहाई सीटों पर मुस्लिम वोटर प्रभावशाली
यूपी में 80 लोकसभा और 403 विधानसभा सीटें हैं। इनमें से लगभग एक तिहाई यानी 143 विधानसभा सीटों पर मुस्लिम वोटर प्रभावशाली हैं। 43 सीटों पर ऐसा असर है कि मुस्लिम उम्मीदवार यहां अपने दम पर जीत हासिल कर सकते हैं। इन्हीं सीटों पर मुस्लिम विधायक बनते रहे हैं। वहीं यूपी की सियासत में मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व उनकी आबादी के तुलना में हमेशा से कम रहा है। सूबे में जब भी भाजपा सत्ता में आई है, तब मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व कम हुआ है।
2019 में यूपी से 6 मुस्लिम सांसद चुने गए
साल 2014 के लोकसभा चुनाव में यूपी चुनाव में एक भी मुस्लिम सांसद नहीं बन पाया था। साल 2019 में यूपी से 6 मुस्लिम सांसद चुने गए थे। इसमें बसपा और सपा के 3-3 सांसद रहे। बसपा से कुंवर दानिश ने अमरोहा से तो अफजाल अंसारी ने गाजीपुर और सहारनपुर से हाजी फजर्लुरहमान ने जीत हासिल की थी। वहीं सपा से आजम खां ने रामपुर, शफीकुर्रमान ने संभल से तो डा. एसटी हसन मुरादाबाद से जीते थे। हालांकि, 2022 में आजम के रामपुर सीट से इस्तीफा देने के बाद उपचुनाव में भाजपा ने कब्जा जमा लिया था।
सबसे कम मुस्लिम विधायक 91 में जीते तो सबसे ज्यादा 2012 के चुनाव में
बसपा और सपा की तुलना में भाजपा में मुस्लिम विधायकों की संख्या घटकर आधी रह गई है। आजादी के बाद के बाद सबसे कम मुस्लिम विधायक अगर 1991 में जीते तो सबसे ज्यादा विधायक 2012 के चुनाव में जीते। साल 2022 के विधानसभा चुनावों में 34 मुसलमान विधायक चुने गए। इसमें 21 विधायक अकेले पश्चिम उत्तर प्रदेश से ही चुनकर आए थे। छह सेंट्रल यूपी से तो सात पूर्वांचल से जीते। पंचायत से लेकर विधानसभा और संसद तक मुस्लिम प्रतिनिधित्व घटा है। एक सोच यह है कि सियासी पार्टियां अब मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देने से संकोच करती हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे उनकी जीत के आसार कम होते हैं।
पूर्वांचल के कुछ हिस्सों में मुसलमान हैं तो पश्चिमी यूपी में मुसलमानों की बड़ी तादाद है। पश्चिमी यूपी में 26.21 फीसदी आबादी मुसलमानों की है। सूबे के 7 जिलों में मुसलमानों की आबादी 40 फीसदी से ज्यादा है, इन्हीं सात जिलों में से छह जगह पर मुस्लिम सांसद 2019 में चुने गए थे। 2022 के चुनाव में भाजपा को इन्हीं जिलों में सपा से सियासी मात खानी पड़ी है।
मुस्लिम वोटों से सपा 47 से बढक़र 111 सीटों पर पहुंची
आजादी के बाद से नब्बे के दशक तक उत्तर प्रदेश का मुस्लिम मतदाता कांग्रेस का परंपरागत वोटर माना जाता था। लेकिन, राममंदिर आंदोलन के चलते मुस्लिम समुदाय कांग्रेस से दूर हुआ तो सबसे पहली पंसद मुलायम सिंह यादव के चलते सपा बनी और उसके बाद समाज ने बसपा को अहमियत दी। इन्हीं दोनों पार्टियों के बीच मुस्लिम वोट बंटता रहा, लेकिन 2022 के चुनाव में एकमुश्त होकर सपा के साथ गया। मुसलमानों का सपा के साथ एकजुट होने का फायदा अखिलेश यादव को मिला।
सपा 47 सीटों से बढक़र 111 सीटों पर पहुंच गई। एक सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक 83 फीसदी मुस्लिम सपा के साथ थे। बसपा और कांग्रेस के मुस्लिम उम्मीदवारों को भी मुसलमानों ने वोट नहीं किया था। असदुद्दीन औवैसी की पार्टी एआईएमआईएम को भी मुस्लिमों ने नकार दिया था। इतनी बड़ी तादाद में मुस्लिम समुदाय ने किसी एक पार्टी को 1984 चुनाव के बाद वोट किया था।
निकाय चुनाव में भी हर दल की जोर आजमाइश शुरू
मुस्लिम मतदाता 2024 के लोकसभा यूपी चुनाव में इसी तरह से एकजुट रहा तो सूबे की 26 लोकसभा सीटों पर सियासी उलफेर हो सकता है। ऐसे में मायावती निकाय चुनाव के जरिए दलित-मुस्लिम समीकरण लेकर फिर से लौटी हैं तो कांग्रेस भी अपनी तरफ उन्हें लाने की कोशिश कर रही है।
वहीं, भाजपा पसमांदा कार्ड के जरिए मुस्लिमों के बीच अपनी जगह बनाना चाहती है तो असदुद्दीन ओवैसी मुस्लिम लीडरशिप के बहाने सियासी जमीन तलाश रहे हैं। सपा मुस्लिम मतों को लेकर बेफिक्र है और अखिलेश यादव को यकीन है कि यह वोट फिलहाल उनसे दूर नहीं जाएगा। ऐसे में देखना है कि भविष्य की सियासत में मुस्लिम मतदाता किसके साथ खड़ा नजर आता है।
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