संपादक की कलम से: सिनेमा पर हाईकोर्ट की नसीहत के अर्थ

धार्मिक ग्रंथ पर बनी फिल्म आदिपुरुष को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने फिल्म मेकर्स और सेंसर बोर्ड दोनों को सख्त हिदायत दी है। कोर्ट ने साफ कर दिया है कि फिल्म मेकर्स कम से कम धार्मिक ग्रंथों को बख्श दें।

Sandesh Wahak Digital Desk: धार्मिक ग्रंथ पर बनी फिल्म आदिपुरुष को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने फिल्म मेकर्स और सेंसर बोर्ड दोनों को सख्त हिदायत दी है। कोर्ट ने साफ कर दिया है कि फिल्म मेकर्स कम से कम धार्मिक ग्रंथों को बख्श दें। यही नहीं कोर्ट ने साफ कर दिया है कि सिनेमा, समाज का आईना होता है, ऐसे में किसी भी धर्म ग्रंथ पर आधारित फिल्म बनाने में किसी प्रकार की छेड़छाड़ नहीं की जानी चाहिए। कोर्ट ने सेंसर बोर्ड को भी कठघरे में खड़ा किया और पूछा, आखिर बोर्ड कर क्या रहा है और समाज को क्या संदेश देना चाहता है?

सवाल यह है कि…

  • क्या हाईकोर्ट की हिदायत से फिल्म मेकर्स व सेंसर बोर्ड सबक लेंगे क्या?
  • प्रयोगधर्मिता और विचार अभिव्यक्ति के नाम पर कुछ भी दिखाने और बनाने की छूट फिल्म मेकर्स को दी जा सकती है?
  • क्या सेंसर बोर्ड का कोई मतलब नहीं रह गया है?
  • क्या फिल्मों को विवादित कर पैसा कमाने की होड़ के कारण हालात बद से बदतर हो गए हैं?
  • क्या कड़ी कार्रवाई के बिना ऐसे लोगों को रोकना संभव होगा?
  • क्या सेंसर बोर्ड को जवाबदेह बनाने के लिए ठोस कदम उठाए जाएंगे?

भारत में फिल्मों ने लंबा सफर तय किया है। फिल्म मेकर्स ने राजनीति से लेकर सामाजिक समस्याओं पर आधारित कई गंभीर और अच्छी फिल्में दी हैं लेकिन जैसे-जैसे सोशल मीडिया और अन्य डिजिटल साधनों का विकास हुआ फिल्म मेकर्स ने अपनी फिल्मों को अधिक से अधिक विवादित कर पैसा कमाने की रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया। वे समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से दूर होते चले गए।

आज फिल्मों के सफल होने का पैमाना एक दिन में होने वाली फिल्म की कमाई बन गया है। इसका परिणाम यह हुआ कि धार्मिक ग्रंथों पर आधारित फिल्मों में भी जानबूझकर विवाद को जन्म दिया जाने लगा है।

आँखें मूदकर क्यों बैठा है सेंसर बोर्ड?

हैरानी की बात यह है कि ऐसी फिल्मों को सेंसर बोर्ड आंख मूंदकर पास कर देता है। जाहिर है फिल्म मेकर्स और सेंसर बोर्ड की मिलीभगत से यह सब किया जा रहा है। यह जानते हुए कि कथानक, संवाद सही नहीं है और यह संबंधित समुदाय को उत्तेजित या आक्रोशित करेंगे, फिल्मों को पास कर दिया जाता है। यह स्थितियां किसी भी समाज के लिए उचित नहीं है। यह देश में अशांति का कारण बनती है और इसके लिए फिल्म मेकर्स और सेंसर बोर्ड दोनों समान रूप से जिम्मेदार हैं। यही वजह है कि हाईकोर्ट ने दोनों को कठघरे में खड़ा किया है।

अभिव्यक्ति के नाम पर समाज का हो रहा है नुकसान

साफ है फिल्म जगत में बढ़ रही इस प्रवृत्ति को जल्द से जल्द रोकने की जरूरत है। केवल रचनाधर्मिता और विचार अभिव्यक्ति के नाम पर समाज को नुकसान पहुंचाने के किसी भी प्रयास को स्वीकार नहीं किया जा सकता है। सरकार को चाहिए कि वह इस मामले में ठोस कदम उठाए और सेंसर बोर्ड को जवाबदेह बनाने के लिए ठोस रणनीति बनाए अन्यथा स्थितियां बद से बदतर होती जाएंगी। फिल्म मेकर्स को भी समझना चाहिए कि एक अच्छी संदेश देने वाली फिल्म ही पसंद की जाती है, विवादित नहीं।

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