सम्पादक की कलम से : सियासी स्वार्थ बनाम जनहित

Sandesh Wahak Digital Desk : देश में सियासी स्वार्थ और दलगत टकराव जनहित पर भारी पड़ते दिख रहे हैं। इसका ताजा उदाहरण दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार द्वारा रीजनल रैपिड ट्रांजिट सिस्टम (आरआरटीएस) जैसी जनहित परियोजना को अपने हिस्से का धन मुहैया कराने में आनाकानी करना रहा है।

मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और शीर्ष अदालत ने न केवल केजरीवाल सरकार को फटकार लगाई बल्कि साफ तौर पर कहा कि सरकार द्वारा तीन साल में विज्ञापन पर खर्च किए गए धन के बराबर भी योजना का पैसा नहीं है। साथ ही आदेश दिया कि केजरीवाल सरकार दो महीने में इस धन को अदा करे।

सवाल यह है कि :-

  • जनता की भलाई के नाम पर वोट बटोर कर सत्ता पाने वाले दल जनहित के नाम पर सियासी दांव-पेच क्यों चलने लगते हैं?
  • आखिर जनता की गाढ़ी कमाई किस बिना पर राजनीतिक दल अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए करते हैं?
  • सरकारी योजनाओं के प्रचार-प्रसार की आड़ में दल का प्रचार क्यों किया जाता है?
  • चुनाव आयोग इस मामले पर कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठाता है?
  • क्या जनता के पैसों को मुफ्त की रेवड़ी बांटने और अपने दल का विज्ञापन करने में खर्च करने को उचित कहा जा सकता है?
  • जनहित की अनदेखी क्यों की जा रही है?
  • क्यों हर बार जनहित के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ता है?

रेलवे के विस्तार और रेल यात्रा को बेहतर बनाने के लिए केंद्र सरकार ने आरआरटीएस योजना की शुरुआत की है। इसके तहत दिल्ली से यूपी के मेरठ, राजस्थान के अलवर और हरियणा के पानीपत तक तीन सेमी हाईस्पीड रेल गलियारे का निर्माण किया जाना है। इसके लिए दिल्ली सरकार को अपने हिस्से का 415 करोड़ देना है लेकिन केजरीवाल सरकार ने धन की कमी की बात कहते हुए इसे देने से इंकार कर दिया था। मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो शीर्ष अदालत ने सरकार से विज्ञापनों पर तीन साल में खर्च की गई कुल रकम का ब्यौरा तलब कर लिया।

केजरीवाल सरकार ने विज्ञापनों पर तीन साल में खर्च किए 1100 करोड़ रुपये

विज्ञापनों पर खर्च की गई धनराशि देखकर सुप्रीम कोर्ट भी आश्चर्यचकित था। केजरीवाल सरकार ने तीन साल में सिर्फ विज्ञापनों पर 1100 करोड़ खर्च किए हैं और जनहित की योजनाओं पर खर्च करने के लिए पैसा न होने का बहाना बना दिया था। लोकतंत्र में चुनी गयी सरकार द्वारा जनहित के कार्यों में इस तरह अड़ंगा लगाने की प्रवृत्ति बेहद खतरनाक है और इसे रोकने के लिए चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट को कोई कदम उठाना होगा।

यही हाल रहा तो इससे केंद्र और राज्य सरकारों में टकराव की स्थिति पैदा होगी और विकास कार्य बाधित होंगे। जाहिर है चुनाव आयोग को सत्ताधारी दलों द्वारा जनता की गाढ़ी कमाई का प्रयोग अपने सियासी स्वार्थों की पूर्ति के लिए करने पर नियंत्रण लगाना होगा। इसके लिए ठोस कदम उठाने होंगे अन्यथा स्थितियां भयावह हो जाएगी और जनहित के कार्य दरकिनार किए जाते रहेंगे।

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