संपादक की कलम से : हाशिए पर जनहित
Sandesh Wahak Digital Desk : संसद का मानसून सत्र करीब-करीब खत्म होने जा रहा है। इस दौरान विपक्ष ने मणिपुर हिंसा पर प्रधानमंत्री के बयान की मांग व दिल्ली सेवा बिल को लेकर अधिकांश समय हंगामा किया। मणिपुर हिंसा पर प्रधानमंत्री को बयान देने के लिए बाध्य करने के लिए कांग्रेस के नेतृत्व में बने विपक्षी गठबंधन ने अविश्वास प्रस्ताव पेश किया, जिस पर चर्चा चल रही है। इससे पहले दिल्ली सेवा बिल पर सदन में चर्चा की गई। बाकी समय सिर्फ हंगामा हुआ।
हालांकि इस दौरान कई विधेयक दोनों सदनों में बिना चर्चा के पास हो गए। ये स्थितियां यह बताने के लिए काफी हैं कि विपक्षी सांसद केवल उन्हीं मुद्दों को उठा रहे हैं, जिनसे उन्हें सियासी फायदा मिले। विपक्ष का ऐसा करना गलत भी नहीं है। हर सियासी पार्टियां ऐसा करती रही हैं।
इसके बावजूद महंगाई, बेरोजगारी, स्वास्थ्य समेत तमाम जनहित के मुद्दों पर जनप्रतिनिधि मौन हैं। उन्हें इससे कोई मतलब नहीं है कि संख्या बल के आधार पर सत्ताधारी दल ने जिन विधेयकों को कानून का रूप दिया है, वे जनहित में हैं या नहीं। उनके गुण-दोषों पर चर्चा की जरूरत विपक्षी दलों ने नहीं समझी।
सवाल यह है कि :-
- जनहित के मुद्दों पर जनप्रतिनिधियों का यह रवैया क्या उचित है?
- क्या संसद को सियासी अखाड़ा बनाया जाना चाहिए?
- आखिर सत्ता और विपक्ष के बीच संवादहीनता क्यों है?
- क्या आक्रामक बयानबाजी और हंगामा लोकतंत्र के लिए घातक नहीं है?
लोकतंत्र में संसद सबसे महत्वपूर्ण होती है। यहां देश की जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों से उम्मीद की जाती है कि वे जनहित के मुद्दों पर सार्थक बहस करेंगे, कानून बनाएंगे और उनको अमलीजामा पहनाएंगे। इसमें सबसे अहम भूमिका विपक्ष की होती है।
एक दशक से संसद के हर सत्र में सिर्फ हंगामा किया जा रहा
मजबूत विपक्ष न केवल सत्ताधारी दल पर अंकुश लगाने का काम करता है बल्कि उसका ध्यान उन मुद्दों की ओर आकर्षित करता है, जिससे सामान्य जनता जुड़ी होती है लेकिन पिछले एक दशक से संसद के हर सत्र में सिर्फ हंगामा किया जा रहा है। सार्थक बहस कभी-कभी ही दिखती है, वह भी तब जब विपक्ष को उस मुद्दे पर अपना सियासी फायदा दिखता है। आज भी वही हो रहा है।
इसमें दो राय नहीं कि मणिपुर और दिल्ली सेवा बिल अहम मुद्दे हैं लेकिन इसके अलावा कई व्यापक मुद्दे हैं, जिस पर विपक्ष सरकार की बेहतर घेरेबंदी कर सकता था, लेकिन ऐसा नहीं किया गया। हैरानी की बात यह है कि दिल्ली सेवा बिल पर बहस करने के लिए पूरा विपक्ष मौजूद रहा लेकिन कई विधेयकों पर उसने सदन में बहस करने की जरूरत तक नहीं समझी।
सदन की कार्यवाही तभी सुचारू रूप से चलेगी जब सत्ता-विपक्ष मिलकर काम करेंगे। सच यह है कि संसद को सियासी अखाड़े की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। उसकी गरिमा को गिराने का काम जारी है। यह स्थितियां बेहद गंभीर है और यदि इसे जल्द नहीं सुधारा गया तो यह लोकतंत्र के लिए खतरनाक साबित होगा।
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