संपादक की कलम से: संवैधानिक टकराव पर सवाल
Sandesh Wahak Digital Desk : पिछले कुछ दशकों से राज्यों में शुरू हुआ संवैधानिक टकराव अब बढ़ता जा रहा है। राज्यपालों और केंद्र से इतर विपक्षी दलों की सत्तारूढ़ सरकार के मुख्यमंत्रियों में संवैधानिक मुद्दों को लेकर तलवारें खिंच रही हैं। आए दिन ऐसे मामले सुप्रीम कोर्ट की चौखट पर पहुंचने लगे हैं। दिल्ली और पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार के बीच विधेयकों और अन्य मुद्दों पर तकरार दिन-ब-दिन तेज होती जा रही है।
यही नहीं खुद सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ रहा है कि राज्यपाल, बिना कार्यवाही के किसी भी विधेयक को अनिश्चितकाल तक रोक नहीं सकते। राज्य के गैरनिर्वाचित प्रमुख के तौर पर राज्यपाल संवैधानिक शक्तियों से संपन्न होते हैं लेकिन वह इसका इस्तेमाल विधानमंडलों द्वारा कानून बनाने की सामान्य प्रक्रिया को विफल करने के लिए नहीं कर सकते।
सवाल यह है कि :-
- राज्यपाल और मुख्यमंत्रियों के बीच टकराव क्यों बढ़ रहे हैं?
- क्या राज्यपालों का प्रयोग सियासी स्वार्थ पूर्ति के लिए किया जा रहा है?
- क्यों केंद्र से इतर विपक्षी सत्तारूढ़ दलों और राज्यपाल के बीच संतुलन स्थापित नहीं हो पा रहा है?
- क्या दोनों ही अपने-अपने सियासी हितों को लेकर टकराव को प्राथमिकता देते रहे हैं?
- क्या इससे भारत का संघवाद प्रभावित नहीं होगा?
- क्या इस टकराव को रोकने के लिए अतिरिक्त प्रयास की जरूरत है?
केंद्र और राज्यों में सत्तारूढ़ विपक्षी दलों के बीच टकराव तब से अधिक बढ़ा जब से क्षेत्रीय दलों का उदय हुआ है। इस टकराव में तेजी तब आई जब दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बनी। पंजाब में भी यही स्थिति बन गई है। सत्तारूढ़ आप सरकार का आरोप है कि राज्यपाल और एलजी उनके काम में बाधा डाल रहे हैं। ऐसा ही आरोप तृणमूल प्रमुख और बंगाल की सीएम ममता बनर्जी भी राज्यपाल पर लगाती रही हैं।
राज्यों व केंद्र में किसी एक दल की सत्ता नहीं रही
दरअसल, यह स्थितियां तब उत्पन्न हुई जब राज्यों व केंद्र में किसी एक दल की सत्ता नहीं रही। हालांकि राज्यों में राज्यपाल की नियुक्ति केंद्र के प्रतिनिधि के तौर पर की जाती है और माना जाता है कि वह केंद्र व राज्य के बीच संतुलन बनाकर चलेगा। यह भारतीय लोकतंत्र के संघवाद का अहम उदाहरण भी है। राज्य का संवैधानिक प्रमुख होने के नाते राज्यपाल का उत्तरदायित्व बनता है कि वह सियासी स्वार्थों से ऊपर उठकर राज्य सरकारों के साथ मिलकर संबंधित राज्य को चलाए।
वहीं राज्य के सत्तारूढ़ दल का भी काम है कि वह हर बात पर अपने ईगो को टकराव के रास्ते पर न ले जाए। सुप्रीम कोर्ट भी यही बात राज्यपाल और सत्तारूढ़ दल को समझाने की कोशिश कर रहा है। साफ है यदि संघवाद को बनाए रखना है तो दोनों को मिलकर राज्य की भलाई के लिए कदम उठाने होंगे न कि टकराव कर जनहित के कार्यों पर अंडग़ा लगाना चाहिए। इसके लिए सभी दलों को मिलकर इसका समाधान निकाला होगा अन्यथा स्थितियां बदतर होती जाएंगी।