संपादक की कलम से: चुनाव बनाम जनहित के मुद्दे
Sandesh Wahak Digital Desk: लोकसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है। सभी पार्टियां चुनावी मैदान में ताल ठोक रही हैं। प्रचार भी जोर पकड़ रहा है। सभाएं हो रही हैं। वादे और दावे भी किए जा रहे हैं बावजूद इसके चुनाव से जनहित के मुद्दे गायब हैं। चुनाव की रणनीति सकारात्मक की जगह नकारात्मक नजर आ रही है। सत्ता और विपक्ष के नेता निजी टिप्पणियां कर रहे हैं।
सवाल यह है कि :-
- क्या विपक्ष के पास जनहित का कोई मुद्दा नहीं है?
- क्या लोकलुभावन वादों और नकारात्मक रणनीति से जनता को प्रभावित किया जा सकता है?
- चुनाव के केंद्र में स्थित जनता को ही दरकिनार क्यों किया जा रहा है?
- क्या वादों की पोटली और जातीय समीकरण को सियासी नेता जीत की कुंजी मान चुके हैं?
- सियासी दल रेवड़ी कल्चर पर भरोसा क्यों कर रहे हैं?
- तमाम कोशिशों के बावजूद वोट प्रतिशत में इजाफा क्यों नहीं हो पा रहा है?
- क्या लोकतंत्र में इसे उचित कहा जा सकता है?
पिछले एक दशक से देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव के दौरान जनहित के मुद्दे नेपथ्य में चले गए हैं। महंगाई, बेरोजगारी, स्वास्थ्य, शिक्षा और विकास की बात अब औपचारिक रूप से की जाती है। इनकी जगह चुनाव को येन-केन-प्रकारेण जीतने की कोशिश की जाती है। इसमें सबसे ज्यादा मुफ्त की रेवड़ी बांटने की प्रवृत्ति रही है। बिजली-पानी, मुफ्त खाद्यान्न जैसी योजनाओं के जरिए कई दलों ने चुनाव में जीत भी हासिल की है। हालांकि इसमें जातीय धु्रवीकरण का भी योगदान कम नहीं है।
जातीय समीकरण देखकर ही प्रत्याशी का चयन
हालत यह है कि जातिवाद का विरोध करने वाले भी जातीय समीकरण देखकर ही प्रत्याशी का चयन करते हैं। अधिकांश क्षेत्रीय दलों की राजनीति इसी जातीय समीकरण के इर्द-गिर्द चलती है। हैरानी की बात यह है कि आजादी के 75 साल बाद भी सियासत में सुधार नहीं दिखता है। ऐसा नहीं है कि देश में जनहित के मुद्दों की कमी है। देश में महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, विकास जैसे तमाम मुद्दे हैं लेकिन इस पर शायद ही कोई दल विशेष फोकस करता है। इस पर बहस कहीं नहीं दिखती है।
सियासी दल बस मुफ्त की घोषणाओं के जरिए चुनाव जीतने की जुगत में लगे दिख रहे हैं। यह दीगर है कि इस योजनाओं को पूरा करने के लिए धन कहां से आएगा, इसके बारे में कोई दल जनता को नहीं बताता है। ऐसे वादे जब देशव्यापी चुनाव के दौरान किए जाते हैं तो वे शायद ही प्रभावित करते हैं। जनता भी ऐसे वादों पर विश्वास नहीं कर पाती है।
इसके अलावा चुनाव में नकारात्मक रणनीति अपनायी जाने लगी है। इसमें दल एक दूसरे की खामियां पर फोकस करते हैं। वे यह नहीं बताते हैं कि उनके पास देश और समाज के विकास के लिए बेहतर विकल्प क्या है और वे इसे कैसे लागू करेंगे। वही जनता का राजनीतिक रूप से अधिक जागरूक नहीं होने के कारण भी स्थितियां सुधर नहीं रही है। सियासी दलों को समझना होगा कि बिना जनहित के मुद्दों के देश की सियासत को सही दिशा में नहीं ले जाया जा सकता है।
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