संपादक की कलम से : चुनाव और लोकलुभावन वादे
Sandesh Wahak Digital Desk: देश में एक बार फिर लोकसभा चुनाव ने दस्तक दे दी है। सत्ता और विपक्ष ने कमर कसनी शुरू कर दी है। भाजपा ने लोकसभा चुनाव के प्रत्याशियों की पहली सूची भी जारी कर दी है। वहीं निर्वाचन आयोग विभिन्न राज्यों में चुनावी तैयारियों में जुट गया है। इन सबके बीच एक बार फिर लोकलुभावन वादों की झड़ी जनता के सामने लगने वाली है।
वोट पाने के लिए मुफ्त की रेवड़ियों से लेकर कई प्रकार के वादे सियासी दल अभी से करने लगे हैं। हालांकि चुनाव आयोग ने साफ कर दिया है कि यदि सियासी दलों को चुनाव के समय वादे करने का अधिकार है तो जनता को ये वादे दल कैसे पूरा करेंगे, इसके लिए धन कहां से आएगा, इसको जानने का अधिकार है।
सवाल यह है कि :
- क्या लोकलुभावन वादों से चुनाव की निष्पक्षता प्रभावित होती है?
- क्या सियासी दल इन वादों को पूरा करने के लिए जरूरी वित्त पोषण की जानकारी जनता के सामने पेश करेंगे?
- क्या मुफ्त की रेवडिय़ों से देश और राज्य की अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक असर नहीं पड़ेगा?
- क्या चुनाव आयोग ऐसे वादों को लेकर कोई ठोस पहलकदमी करेगा?
- क्या ऐसे वादे लोकतांत्रिक प्रणाली की नींव को कमजोर नहीं करेंगे?
- सत्ताधारी दलों द्वारा वादों को पूरा किया गया या नहीं, इसकी समीक्षा कौन करेगा?
भारत में लोकसभा व राज्य विधानसभा चुनावों के दौरान विभिन्न सियासी दल सत्ता पाने के लिए लोकलुभावन वादों की झड़ी लगा देते हैं। पिछले एक दशक में इसकी रफ्तार तेजी से बढ़ी है। मुफ्त राशन, बिजली, पानी, कर्ज माफी जैसे कई वादे किए जाते हैं। इसमें दो राय नहीं कि भारत जैसे देश में जहां गरीबी अभी भी है, वहां ऐसे वादे वोटरों को प्रभावित करते हैं। इसका फायदा भी वादा करने वाले दलों को मिलता रहा है।
राज्यों पर कर्ज बढ़ता जा रहा
मसलन, मुफ्त राशन योजना का फायदा जहां भाजपा को मिला है वहीं मुफ्त बिजली, पानी देने के वादे ने आम आदमी पार्टी को सत्ता तक पहुंचाने में सफल रही है। मुफ्त की रेवडिय़ों और कल्याणकारी योजनाओं को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकारों से इसका अंतर स्पष्टï करने को कहा है। सच यह है कि मुफ्त की रेवड़ियों की वजह से कल्याणकारी योजनाओं पर विपरीत असर पड़ रहा है। वहीं सबको ऐसे वादों का लाभ देने के कारण राज्यों पर कर्ज बढ़ता जा रहा है।
आरबीआई भी इसको लेकर राज्यों को आगाह कर चुका है। चुनाव आयोग भी इस मामले पर अपनी चिंता जता चुका है। बावजूद इसके दल सत्ता पाने के लिए चुनाव के दौरान ऐसे वादे करते रहते हैं। होना यह चाहिए कि सत्ताधारी दलों को जरूरतमंद लोगों को इस प्रकार के फायदे देने चाहिए और लोगों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए रोजगार के साधनों का विस्तार करना चाहिए। वहीं चुनाव आयोग को भी जनता को राजनीतिक रूप से प्रशिक्षित करना चाहिए ताकि आम आदमी निष्पक्ष चुनाव कराने में अपनी अहम भूमिका निभा सके अन्यथा स्थितियां देश की अर्थव्यवस्था के लिए ठीक नहीं होंगी।