संपादक की कलम से: गणतंत्र पर मंथन

Sandesh Wahak Digital Desk: देश आज 76वां गणतंत्र दिवस पूरे उत्साह से मना रहा है। सभी पर राष्ट्रभक्ति का रंग चढ़ा है। भारतीय संविधान का गौरव गान किया जा रहा है। व्याख्यान दिए जा रहे हैं लेकिन सिर्फ व्याख्यान से काम नहीं चलेगा। यह भारतीय गणतंत्र की लंबी और गौरवपूर्ण यात्रा पर आत्मचिंतन करने का भी वक्त है।

यह सोचने का समय है कि :  

  • हम संविधान के आदर्शों और मूल्यों को कहां तक जमीन पर उतार सके हैं?
  • विशेषकर गणतांत्रिक पद्धति से चुनी गयी सरकार में बैठे लोगों को आत्ममंथन की जरूरत है। इसमें दो राय नहीं कि इस अवधि में हमने बहुत कुछ सीखा और पाया है पर क्या इससे हमारा गणतंत्र परिपक्व हुआ है?
  • क्या हम भारतीय संविधान के लक्ष्य लोककल्याणकारी राज्य की संकल्पना के करीब पहुंच सके हैं?
  • क्या समाज में व्याप्त आर्थिक असमानता की खाई कम होने की जगह बढ़ी नहीं है?
  • क्या सबके लिए न्याय सुलभ हो सका है?
  • क्या तंत्र के जाल से गण यानी जनता मुक्त हो सकी है?
  • क्या संविधान की शपथ खाने वाले गणतंत्र को मजबूती प्रदान करने में सफल हुए हैं?
  • क्या सियासी स्वार्थपूर्ति, संवैधानिक लक्ष्य की सबसे बड़ी बाधा बन चुकी है?
  • क्या बंधुत्व की अवधारणा साकार हो सकी है?

किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए 76 वर्ष कम नहीं होते। स्वतंत्र भारत में हमारे संविधान निर्माताओं ने देश को केंद्र में रखकर बड़े सपने सजोए थे। इस लोकतंत्र का मूल जनता का, जनता द्वारा और जनता के लिए शासन है। इसी को ध्यान में रखकर संविधान की रचना की गयी और इसे 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया। संविधान के निर्माण में दो साल, 11 महीने और 18 दिन लगे थे। संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. भीमराव आंबेडकर ने तब कहा था कि संविधान अच्छे लोगों के हाथ में रहेगा तो अच्छा सिद्ध होगा लेकिन बुरे हाथों में चला गया तो इस हद तक नाउम्मीद कर देगा कि किसी के लिए भी यह नहीं नजर आएगा।

दुनिया में बढ़ रही देश की प्रतिष्ठा

डॉ. आंबेडकर की यह चिंता पहले दिन से आज तक हमारे सामने खड़ी है। इसमें दो राय नहीं कि भारत अपने इस कालखंड में विभिन्न क्षेत्रों में तमाम कालजयी उपलब्धियां हासिल की हैं। दुनिया में हमारी प्रतिष्ठा लगातार बढ़ी है, देश का कद बढ़ा है। बावजूद इसके संविधान की मूल आत्मा और मूल्यों को पूरी तरह स्थापित करने में अभी हम बहुत पीछे हैं। सभी को समानता और न्याय उपलब्ध कराने में कुछ हद तक ही सफल हो सके हैं।

आज भी हाशिए पर खड़े व्यक्ति को उस तरह न्याय सुलभ नहीं है जैसे अमीर और सत्ताधारियों को मिल रहा है। यही नहीं आज भी हम जनता को पूरी तरह साक्षर नहीं कर सके हैं। उनकी राजनीति चेतना को विकसित करने की बजाए सियासी दल जाति-धर्म और संप्रदाय का विष अपने निहित स्वार्थों के लिए समाज में घोल रहे हैं। गणतंत्र में आज भी गण पर तंत्र हावी है। देश में गणतंत्र पूरी तरह तभी सफल होगा जब हम अपने संविधान निर्माताओं के मूल भावनाओं और संविधान के आदर्शों को जमीन पर उतार सकेंगे।

Also Read: संपादक की कलम से: अवैध प्रवासी, अमेरिका…

Get real time updates directly on you device, subscribe now.