संपादक की कलम से: अपनी ढपली, अपना राग
Sandesh Wahak Digital Desk : लोकसभा चुनाव में केंद्र की सत्ता से भाजपा को उखाड़ फेंकने के लिए बना इंडिया गठबंधन खंड-खंड होने लगा है। इसके साझीदार एक-एक कर किनारा कसते दिख रहे हैं। आम आदमी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, पीडीपी, नेशनल कांफ्रेंस ने अकेले दम पर लोकसभा चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है। वहीं सपा भी इससे खुद को दरकिनार करती नजर आ रही है।
सवाल यह है कि :
- लोकसभा चुनाव के पहले ही विपक्षी गठबंधन के हौसले पस्त क्यों हो गए?
- क्या सीट बंटवारे पर कांग्रेस की पहलकदमी नहीं करने के कारण हालात बिगड़ गए हैं?
- क्या कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व गठबंधन को बनाए रखने में दिलचस्पी नहीं दिखा रहा है?
- क्या ये दल मान चुके हैं कि भाजपा को सत्ता में आने से रोका नहीं जा सकता है?
- क्या हर दल गठबंधन को बनाए रखने के लिए जरूरी तालमेल बिठाने में असफल हो चुका है?
- अलग-अलग चुनाव लड़ने से किसको फायदा होगा?
- क्या गठबंधन में साझीदार दलों की सियासी महत्वाकांक्षाएं समन्वय बनाने में आड़े आ रही है?
- क्या क्षेत्रीय दल अपने कोर वोटरों को लोकसभा चुनाव में गठबंधन साथियों के साथ शेयर नहीं करना चाहते हैं?
भारतीय इतिहास में विपक्षी दलों का यह शायद पहला गठबंधन होगा जो बेहद कम समय में विफल हो गया है। शुरुआत में 28 दलों ने मिलकर इसे केंद्र की सत्ता में आरूढ़ भाजपा के खिलाफ बनाया था लेकिन इसके सूत्रधार और जदयू के मुखिया नीतीश कुमार खुद भाजपा के साथ गठबंधन कर चले गए। पश्चिम बंगाल में ममता की तृणमूल कांग्रेस और दिल्ली व पंजाब में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी ने भी इन राज्यों में अकेले दम पर चुनाव का ऐलान कर गठबंधन के प्रति अपने अविश्वास को जता दिया। रही सही कसर यूपी में सपा ने निकाल दी है। कुल मिलाकर बिहार से लेकर यूपी तक गठबंधन की हवा निकलती दिख रही है।
कांग्रेस का जनाधार नहीं
दरअसल, सीट बंटवारे को लेकर इन क्षेत्रीय दलों की कांग्रेस से बात नहीं बन सकी है। कांग्रेस भी जिस तरह अपने सहयोगी दलों से व्यवहार कर रही है, उससे भी ये दल खुद को आहत महसूस कर रहे हैं। कांग्रेस, दिल्ली, पंजाब, यूपी और पश्चिम बंगाल में अधिक सीटें चाहती है जबकि इन दलों का कहना है कि यहां कांग्रेस का जनाधार नहीं है, लिहाजा अधिक सीटें उसके लिए मुफीद साबित नहीं होगी उल्टा इसका नुकसान उठाना पड़ सकता है।
इसके अलावा कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के कोर वोटर लगभग एक ही हैं। ऐसे में ये दल कांग्रेस को अपने-अपने क्षेत्रों में अधिक सीट देकर उसे सियासी जमीन मजबूत नहीं करने देना चाहते हैं। कांग्रेस भी इस बात को समझती है। उसे उम्मीद है कि उसके पुराने अल्पसंख्यक कोर वोटरों का क्षेत्रीय दलों से मोहभंग हो रहा है लिहाजा इसका फायदा उसे लोकसभा चुनाव और बाद में विधानसभा चुनाव में मिल सकता है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि गठबंधन लोकसभा चुनाव के पहले किस करवट बैठता है।