संपादक की कलम से: भड़काऊ भाषण पर नसीहत बेअसर

Sandesh Wahak Digital Desk: लोकसभा चुनाव जैसे-जैसे अगले चरणों में प्रवेश करता जा रहा है, सियासी दल भाषा की मर्यादाओं को तार-तार कर रहे हैं। कोई भी दल ऐसा नहीं है जो भडक़ाऊ बयान देने में किसी से कम दिख रहा हो। इन पर चुनाव आयोग की नसीहत का कोई असर नहीं पड़ रहा है। हालांकि चुनाव आयोग ने ऐसे भाषणों पर संबंधित नेता के खिलाफ कार्रवाई की बात की थी लेकिन वह भी जमीन पर होती नहीं दिख रही है। ऐसे में सियासी दलों का चाल-चरित्र और चेहरा उजागर होता जा रहा है।

सवाल यह है कि :-

  • आजादी के 75 साल बाद भी क्या लोकतांत्रिक मूल्यों का सम्मान करना सियासी दल नहीं सीख सके हैं?
  • क्या हार-जीत के लिए किसी भी स्तर तक निम्न भाषा का इस्तेमाल किया जाना चाहिए?
  • क्या सियासी दल ऐसी भाषा का जानबूझकर प्रयोग कर रहे हैं?
  • क्या यह अपने-अपने वोट बैंक को खुश करने और उनकी सहानुभूति पाने के लिए भड़काऊ भाषणों का प्रयोग कर रहे हैं?
  • क्या चुनाव आयोग इस पर लगाम लगाने में नाकाम साबित हो रहा है?
  • क्या ऐसे ही देश में लोकतंत्र परिपक्व हो सकेगा?

चुनावों में साल-दर-साल सियासी दलों के नेताओं के भाषण का स्तर गिरता जा रहा है। वे जनहित और राष्ट्र हित के मुद्दों पर बात करने की जगह एक दूसरे पर कीचड़ उछालने का काम कर रहे हैं। एक-दूसरे पर निजी हमले किए जा रहे हैं। फेक वीडियो और सोशल मीडिया पर फर्जी नेरेटिव सेट किए जा रहे हैं। किसी को इस बात से मतलब नहीं है कि जनता की मंशा क्या है। सच यह है कि सियासी दलों के इसी व्यवहार के कारण देश में तमाम कोशिशों के बावजूद वोट प्रतिशत नहीं बढ़ रहा है। कम से कम चालीस फीसदी वोटर इनके प्रति उदासीन हो चुके हैं।

वोट बैंक की भावनाओं को भड़काने की कोशिश

हकीकत में देखा जाए तो सत्ता पर काबिज होने वाला दल अधिकतम 35 से चालीस फीसदी वोट पाता है जबकि लोकतंत्र में सही अर्थों में देखा जाए तो बहुमत कम से कम 51 फीसदी होना चाहिए। रही बात चुनाव में भडक़ाऊ भाषणों के प्रयोग का तो अधिकांश दल अपने समर्थकों और वोट बैंक को खुश करने के लिए इसका प्रयोग जानबूझकर करते हैं। वे अपने वोट बैंक की भावनाओं को भडक़ाते हैं और विरोधी के खिलाफ फर्जी नैरेटिव चलाने की कोशिश करते हैं।

जनता भी इनके झांसे में आ जाती है क्योंकि अभी भी भारत की जनता पूरी तरह न तो अपने वोट की शक्ति के प्रति जागरूक है और न ही उसके अंदर राजनीतिक समझ परिपक्व हो सकी है। संविधान की बात करने वाले भी चुनाव में धर्म और जाति के नाम पर वोट मांगते हैं।

वे जातीय समीकरण के आधार पर प्रत्याशियों को टिकट देते हैं। हालांकि अच्छी बात यह रही है कि पिछले कुछ चुनावों में यह समीकरण ध्वस्त हुए हैं लेकिन अभी भी इनका प्रभाव बना हुआ है। ऐसे में चुनाव आयोग को ही इस पर लगाम लगाना होगा। इसके लिए उसे अपने संवैधानिक शक्तियों का इस्तेमाल करना होगा अन्यथा लोकतंत्र शायद ही परिपक्व हो सके।

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