संपादकीय: Voting के प्रति मतदाताओं की उदासीनता
यूपी के नगर निकाय चुनाव के पहले चरण में महज 52 फीसदी वोट पड़े। कई शहरों में मतदान (Voting) का प्रतिशत बेहद कम रहा।
Sandesh Wahak Digital Desk: यूपी के नगर निकाय चुनाव के पहले चरण में महज 52 फीसदी वोट पड़े। कई शहरों में मतदान (Voting) का प्रतिशत बेहद कम रहा। मतदान के प्रति मतदाताओं की उदासीनता केवल निकाय चुनावों में ही नहीं बल्कि विधानसभा और लोकसभा के चुनावों में भी दिखती है। लोकतांत्रिक प्रणाली में अपने मताधिकार के प्रति लोगों की उदासीनता खतरनाक है। इसके कारण बहुमत की सरकार के मायने ही बदल जाते हैं क्योंकि जिस चुनाव में साठ फीसदी लोग भी भाग नहीं लेते हो, वहां चुनाव का परिणाम जनता की भावनाओं के अनुरूप कैसे माना जा सकता है।
सवाल यह है कि…
- आजादी के 75 साल बाद भी मतदान (Voting) के प्रति लोगों में जागरूकता क्यों नहीं उत्पन्न हो सकी?
- चुनाव आयोग और सरकारें मतदान प्रतिशत बढ़ाने में नाकाम क्यों हैं?
- खामी आखिर कहां है?
- आम आदमी चुनाव को हल्के में क्यों लेता है?
- क्या लोगों का सियासी दलों से भरोसा उठता जा रहा है?
- क्या मतदान प्रतिशत बढ़ाने के लिए निर्वाचन आयोग को अब दूसरी रणनीति अपनाने की जरूरत है?
- क्या इस स्थिति को लोकतांत्रिक देश के लिए खराब संकेत माना जा सकता है?
सियासी दलों पर अब जनता को भरोसा नहीं
निर्वाचन आयोग की कवायदों, राजनेताओं की अपीलों और प्रत्याशियों की तमाम कोशिशों के बावजूद अपने प्रतिनिधियों को चुनने में आम मतदाता का जोश सतह पर नहीं दिख रहा है। हालात सुधरने के बजाए बिगड़ते जा रहे हैं। मतदाता अपनी वोट की शक्ति को समझ नहीं रहा है और इसके प्रति उदासीन हो चुका है। इसका दूसरा पहलू यह भी है कि मतदाता, सियासी दलों के वादों पर भरोसा नहीं कर रहा है। इनकी साख आम मतदाता के बीच धीरे-धीरे कम होती जा रही है।
निर्वाचन आयोग और सरकार को करना होगा मंथन
वहीं, जनसभाओं में दिखने वाली भीड़ से मतदान प्रतिशत का आंकलन करे तो साफ हो जाता है कि नेताओं को सुनने आने वाले लोग भी बूथों तक नहीं पहुंच रहे हैं। यह विरोधाभास शोध का विषय हो सकता है। यानी सियासत में रूचि लेने वाला आम आदमी ऐन चुनाव के समय मताधिकार का प्रयोग क्यों नहीं करता है? हालांकि मतदान प्रतिशत में कमी का एक सहयोगी कारण वोटर लिस्ट में पायी जाने वाली खामियां भी होती हैं। यही नहीं नेताओं और कार्यकर्ताओं का घर-घर नहीं पहुंचना भी मतदान की धीमी रफ्तार की वजह है। यह स्थितियां बेहद चिंताजनक है और निर्वाचन आयोग, सरकार और सियासी दलों को इस पर मंथन करने की जरूरत है।
एक लोकतांत्रिक देश में जनता ही सरकार चुनती है। ऐसे में यदि वह ही सरकार के चयन में उदासीन होगी तो निश्चित तौर पर एक बेहतर सरकार देने का सपना कभी साकार नहीं हो पाएगा। ऐसी स्थिति में कोई प्रत्याशी चुनाव भले जीत जाए वह सही अर्थों में जनप्रतिनिधि की परिभाषा के दायरे में नहीं आ सकेगा।
साफ है यदि निर्वाचन आयोग मतदान प्रतिशत (voting percentage) को बढ़ाना चाहता है तो उसे इसका कोई ठोस हल निकालना होगा। साथ ही सियासी दलों को भी सोचना होगा कि रैली में आने वाली भीड़ वोटों में तब्दील क्यों नहीं हो पा रही है।
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