Editorial: राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा छिनने के मायने
निर्वाचन आयोग ने तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) का राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा वापस ले लिया है।
संदेशवाहक डिजिटल डेस्क। निर्वाचन आयोग ने तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) का राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा वापस ले लिया है। ऐन लोक सभा चुनाव से पहले इन पार्टियों का कद घटना इनके प्रमुखों के लिए बड़ा झटका है।
सवाल यह है कि…
- आयोग के इस फैसले का देश की सियासत पर क्या असर पड़ेगा?
- क्या इससे भाजपा के खिलाफ विपक्षी एकता की कोशिशें प्रभावित होंगी?
- क्या सिमटती भाकपा के लिए यह आने वाले दिनों में अस्तित्व बचाने का बड़ा प्रश्न बन जाएगा?
- क्या ये फैसला भाजपा के खिलाफ विपक्षियों को कांग्रेस के नेतृत्व को स्वीकार करने के लिए बाध्य करेगा?
- क्या तृणमूल प्रमुख ममता बनर्जी की राष्ट्रीय नेतृत्व देने की महत्वाकांक्षा और शरद पवार के कांग्रेस के साथ गठबंधन पर विपरीत असर पड़ेगा?
देश और प्रदेश की राजनीति में किसी पार्टी की अहमियत उनके कद से होती है। राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा प्राप्त करना किसी भी सियासी दल के लिए बड़ी उपलब्धि मानी जाती है और माना जाता है कि ऐसी पार्टियों का जनाधार देश के कई राज्यों में है या तेजी से बढ़ रहा है। यह वह मानक है जिसके जरिए संबंधित दल का मुखिया राष्ट्रीय राजनीति में अपनी भूमिका तलाशता है और महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति की कोशिश करता है।
तृणमूल कांग्रेस को बड़ा झटका
ऊपरी तौर पर देखें तो फैसले से ममता की तृणमूल कांग्रेस को बड़ा झटका लगा है लेकिन सियासी हकीकत यह है कि इस फैसले से भाकपा को सबसे अधिक नुकसान हुआ है। कभी भाकपा को देश में कांग्रेस का विकल्प माना जाता था। देश के अधिकांश राज्यों में इसका कैडर और जनाधार था। उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में इसकी पकड़ थी। कई राज्यों में उसकी सरकारें हुआ करती थीं लेकिन भाजपा की बढ़ती मजबूती और भाकपा की गुटबंदी ने इस दल को हाशिए पर पहुंचा दिया। राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा छिनने से इसकी रही-सही अहमियत पर भी सवाल खड़े होने लगे हैं।
TMC की महत्वाकांक्षा पर घातक चोट
जहां तक ममता का सवाल है, इसने उनकी राष्ट्रीय राजनीति में उतरने की महत्वाकांक्षा पर घातक चोट की है। ममता इसके बूते कांग्रेस विशेषकर राहुल गांधी के नेतृत्व को स्वीकार नहीं कर रही थीं और खुद विपक्षी दलों को एकजुट कर नए फ्रंट के गठन की कोशिश में जुटी थीं।
कांग्रेस अब भी सबसे बड़ा विपक्ष
दूसरी ओर राकांपा प्रमुख देश की बड़ी सियासी शख्सियत हैं। वे कांग्रेस के साथी हैं। इस फैसले से अब वे भी कांग्रेस पर दबाव की रणनीति शायद नहीं अपना सकेंगे। इस फैसले का विश्लेषण करे तो यह कांग्रेस के पक्ष में अधिक जाता दिख रहा है। लोक सभा चुनाव में अब विपक्षी दल कांग्रेस के सामने बराबरी से बात करने की हैसियत में नहीं होंगे और यदि भाजपा के खिलाफ विपक्षी एकता की कोशिश रंग लाती है तो इसके केंद्र में कांग्रेस होगी क्योंकि भाजपा के खिलाफ आज भी वही एक मात्र राष्ट्रीय विकल्प है। उसका जनाधार सभी राज्यों में है। यह देखना दिलचस्प होगा कि यह फैसला सियासत को किस मोड़ पर ले जाता है।
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