संपादकीय: लोकतंत्र में सामंती मानसिकता
लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजशाही या सामंती मानसिकता का कोई स्थान नहीं है।
संदेशवाहक डिजिटल डेस्क। केंद्रीय जांच एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगाने वाली कांग्रेस समेत 14 विपक्षी पार्टियों को सुप्रीम कोर्ट ने न केवल आईना दिखाया बल्कि यह भी साफ कर दिया कि कानून के सामने आम नागरिक व नेता बराबर हैं और उनकी अपने लिए अलग विधान या नियमों में छूट की मांग नाजायज है। लोकतांत्रिक व्यवस्था (democratic system) में राजशाही या सामंती मानसिकता का कोई स्थान नहीं है। यहां सारी शक्तियां जनता में निहित हैं और जनप्रतिनिधि होने के नाते यदि कोई नेता अपने लिए विशेषाधिकार की मांग करता है तो वह जनता के ऊपर अपने को समझने की कोशिश कर रहा है। इस प्रकार की मांग करना संविधान की मर्यादा को भंग करने के सदृश है।
सवाल यह है कि…
- लोकतंत्र (Democracy) और संविधान के रक्षा की दुहाई देने वाले सियासी दलों के नेता खुद के लिए विशेषाधिकार क्यों चाहते हैं?
- कानून के समक्ष समानता के सिद्धांत का विरोध क्यों किया जा रहा है?
- क्या ये सारे दांव-पेच केंद्रीय एजेंसियों को भ्रष्चाटार के खिलाफ कार्रवाई करने से रोकने के लिए चले जा रहे हैं?
- क्या भ्रष्चाटार को लेकर आम आदमी और नेताओं के लिए अलग कानून का प्रावधान किया जा सकता है?
- क्या अपने लिए विशेषाधिकार की मांग कर विपक्ष ने लोकतांत्रिक मूल्यों और संविधान की गरिमा पर चोट नहीं की है?
- क्या देश को अंदर से खोखला कर रहे भ्रष्चाटारियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए?
जांच एजेंसियों के खिलाफ 14 विपक्षी दल एक साथ
आजादी के बाद शायद ऐसा पहली बार हुआ है जब 14 विपक्षी दल सुप्रीम कोर्ट में भ्रष्चाटार के विरुद्ध कार्रवाई कर रही जांच एजेंसियों के खिलाफ याचिका दायर की। यही नहीं कांग्रेस नेता और वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने कोर्ट से बाकायदा भ्रष्चाटार में लिप्त नेताओं की गिरफ्तारी से पहले और जमानत के लिए अलग गाइडलाइन जारी करने का अनुरोध किया।
क्या अभिषेक मनु सिंघवी ने सुप्रीम कोर्ट को गुमराह करने की कोशिश की!
उन्होंने आंकड़ों से सुप्रीम कोर्ट को गुमराह करने की कोशिश भी की कि मोदी सरकार के इशारे पर सीबीआई और ईडी विपक्षी दलों के नेताओं के खिलाफ अभियान चला रही है। वे यह भूल गए कि देश में संविधान और कानून नाम की कोई चीज है और उनकी सामंती मानसिकता (Feudal Mindset) का पक्षपोषण करते हुए उनके लिए अलग से कोई छूट नहीं दी जा सकती है। भले ही सुप्रीम कोर्ट ने उनकी याचिका खारिज कर दी हो, इसने एक बात साफ कर दी कि लोकतंत्र के नाम पर सत्ता का सुख भोग चुके ये सियासी दल अपने लिए विशेषाधिकार चाहते हैं और यदि उन्हें कभी मौका मिला तो वे कानून बनाकर ऐसा कर भी सकते हैं। लोकतंत्र, कानून का राज और जनता-जनार्दन उनके लिए महज एक जुमला भर हैं। हैरानी की बात यह है कि वे भ्रष्चाटार के पक्ष में भी खड़े दिखते हैं।
यदि मान भी लें कि एजेंसियों का दुरुपयोग हो रहा है तो क्या विपक्ष के पास इस बात का कोई जवाब है कि विभिन्न दलों के नेता भ्रष्चाटार में फंसकर जेल क्यों जा रहे हैं, जमानत पर क्यों हैं? सियासी दलों का यह रुख लोकतंत्र के भविष्य के लिए सही संदेश नहीं है।