संपादक की कलम से : नतीजों के सियासी संदेश
Sandesh Wahak Digital Desk : हाल में आए चार विशेषकर तीन हिंदी पट्टी वाले राज्यों के चुनाव नतीजों ने सियासी गुणा-भाग को पूरी तरह धराशायी कर दिया है। इन राज्यों में विपक्ष की मंडल की राजनीति का गुब्बारा फूट गया। राजस्थान में रिवाज कायम रहा और यहां राज बदल गया। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के क्षत्रप और सीएम भूपेश बघेल अपनी जीत को लेकर सबसे अधिक आश्वस्त थे लेकिन उनको भी जनता के फैसले के आगे सिर झुकाना पड़ा। तेलंगाना को छोडक़र कांग्रेस कहीं कमाल नहीं दिखा सकी।
सवाल यह है कि :
- आखिर इन नतीजों के सियासी संदेश क्या हैं?
- क्या देश में अब राष्ट्रवाद, विकास की राजनीति ही परवान चढ़ेगी?
- क्या जाति की राजनीति को जनता ने दरकिनार कर दिया है?
- क्या भ्रष्टाचार को लेकर जनता के मन में वाकई जीरो टॉलरेंस का भाव आ गया है?
- क्या महिलाओं के बीच तेजी से फैल रही सियासी जागरूकता आने वाले दिनों में पूरे परिदृश्य को बदल देगी?
- क्या धु्रवीकरण और तुष्टिकरण की राजनीति पर इसका निकट भविष्य पर कोई असर पड़ेगा?
- क्या इन संदेशों को सियासी दल समझ सके हैं?
चुनाव परिणामों ने साफ कर दिया है कि अब जनता अपने हित में काम नहीं करने वाली सरकारों को बहुत दिन ढोने के मूड में नहीं है। वह जाति आधारित राजनीति के फेर में नहीं पड़ रही है। यह संदेश उन हिंदी पट्टी के तीन राज्यों से निकलकर आया है जहां जातिवाद की राजनीति अरसे से चल रही थी और इसका लाभ चुनाव में दलों को मिलता रहा है।
विपक्ष का मास्टर स्ट्रोक हुआ फेल
पहली बार हुआ है जब जाति जनगणना का मुद्दा या कहे विपक्ष का मास्टर स्ट्रोक कहा जाने वाला दांव टांय-टांय फिस्स हो गया। नतीजों से साफ हो गया है कि जातिवादी यानी मंडल की राजनीति बीते दिनों की बात हो गयी है। अब जनता सियासी दलों के चुनावी वादों और उसके पिछले ट्रैक रिकॉर्ड को देखकर अपने मताधिकार का प्रयोग कर रही है। उसका ध्यान उन तमाम जनहित की योजनाओं पर रहता है जो उसके जीवन स्तर को सुधार सकते हैं।
हालांकि इसके साथ राष्ट्रवाद और विकास का मुद्दा भी चुनावों को प्रभावित करता है। सबसे बड़ा संदेश यह है कि देश की आधी आबादी अब धीरे-धीरे राजनीति में अपने मताधिकार के अहमियत को समझने लगी है और ठोक-बजाकर अपने वोट किसी पार्टी को दे रही है। किसी भी लोकतांत्रिक देश में इस बदलाव को सकारात्मक माना जा सकता है अन्यथा अभी तक महिलाएं दलों के एजेंडे से बाहर ही रखी जाती रही हैं।
हालांकि अभी धर्म के नाम पर ध्रुवीकरण का फैक्टर काम कर रहा है लेकिन आने वाले दिनों में इस पर भी विराम लग सकता है। इसने एग्जिट पोल की पोल भी खोल दी है। साफ कर दिया है कि सटीक अनुमान के लिए जमीनी हकीकत को समझने की जरूरत है। कुल मिलाकर सियासी दलों को इन संदेशों को न केवल समझना होगा बल्कि इसके मुताबिक काम करना होगा अन्यथा वे सत्ता के पायदान से फिसलते रहेंगे।
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