संपादक की कलम से : सुप्रीम कोर्ट की चिंता
Sandesh Wahak Digital Desk : सुप्रीम कोर्ट ने केरल में बांधकर रखे गए हाथियों की मौत पर दायर की गई अंतरिम याचिका पर सुनवाई करने से न केवल इंकार कर दिया बल्कि साफ कह दिया कि शीर्ष अदालत हर मुद्दे पर विचार नहीं कर सकता है। साथ ही यह भी स्पष्ट किया कि याचिकाकर्ता स्थानीय विषयों को हाईकोर्ट ले जाए क्योंकि वहां के न्यायाधीश स्थानीय परिस्थितियों और प्रभावों को जानते हैं। हां, इसके बाद भी कोई त्रुटि होती है तो उसे शीर्ष अदालत सुधारेगी।
सवाल यह है कि :-
- बार-बार कहने के बाद भी स्थानीय मुद्दों को सुप्रीम कोर्ट क्यों ले जाया जाता है?
- हाईकोर्ट में इन मुद्दों को क्यों नहीं उठाया जाता है?
- बात-बात पर सुप्रीम कोर्ट पहुंचने के पीछे की मानसिकता क्या है?
- क्या सियासी स्वार्थों की पूर्ति के लिए इस प्रकार की अर्जियां सुप्रीम कोर्ट में दायर की जाती हैं?
- क्यों सुप्रीम कोर्ट का बहुमूल्य समय नष्ट किया जाता है?
- क्या इस परंपरा को रोकने के लिए शीर्ष अदालत को गाइडलाइंस जारी करने की जरूरत है?
- क्या इस प्रकार की याचिकाएं अहम मुकदमों में सुनवाई में देरी का कारण नहीं बनती है?
पिछले कुछ वर्षों में हर बात पर उच्चतम न्यायालय जाने का चलन बढ़ा है। अधिकांशत: सियासी स्वार्थों की पूर्ति के लिए तमाम दल विभिन्न मुद्दों को लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंचते हैं। इसके अलावा कई बार जनहित याचिकाएं भी दायर की जाती हैं। सुप्रीम कोर्ट तय करता है कि इन याचिकाओं में किस पर सुनवाई करनी है, किस पर नहीं।
हालांकि इस चलन से सुप्रीम कोर्ट परेशान हो चुका है। वह कई बार साफ कर चुका है कि लोग पहले निचली अदालत और हाईकोर्ट जाएं फिर शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाएं। बावजूद स्थितियां सुधर नहीं रही हैं। सच यह है कि अधिकांश लोगों की मानसिकता होती है कि मुकदमे पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर लग जाए ताकि अन्य अदालतों तक जाने की जरूरत न पड़े।
उच्चतम न्यायालय के प्रति जनता का जबरदस्त विश्वास
सरकारी तंत्र की लापरवाही के कारण भी लोगों को उच्चतम न्यायालय की शरण लेनी पड़ती है क्योंकि आज भी लोगों के मन में सुप्रीम कोर्ट के प्रति जबरदस्त विश्वास है और वे समझते हैं कि यहां उनकी सभी समस्याओं का समाधान हो जाएगा लेकिन लोगों को यह समझना होगा कि छोटी-छोटी बातों पर वे सुप्रीम कोर्ट न जाएं। इसके कारण वहां अहम मुकदमों की सुनवाई बाधित होती है और कोर्ट का बहुमूल्य समय इन याचिकाओं को निपटाने में खर्च हो जाता है।
हालांकि इस परंपरा को तब तक नहीं रोका जा सकेगा जब तक खुद सुप्रीम कोर्ट इस मामले पर कोई गाइडलाइंस न जारी कर दें। अन्यथा लंबित मुकदमों की संख्या बढ़ती जाएगी और आम आदमी को समय पर न्याय नहीं मिल पाएगा। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट को निचली अदालतों और हाईकोर्ट की संख्या बढ़ानी होगी ताकि मुकदमों का निर्णय जल्द से जल्द किया जा सके अन्यथा लोग अंतिम फैसला पाने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाते रहेंगे।
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