सम्पादक की कलम से : राष्ट्रीय सुरक्षा का सवाल और सुप्रीम कोर्ट

Sandesh Wahak Digital Desk : सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर पुलिस-प्रशासनिक और न्यायिक व्यवस्था पर गंभीर सवाल उठाए हैं। 1996 में राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के लाजपत नगर में हुए बम ब्लास्ट के दोषियों के खिलाफ जांच के साथ न्यायिक अधिकारियों द्वारा सुनवाई में देरी को सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय हितों से समझौता करार दिया और साफ तौर पर हिदायत दी कि राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर तत्काल सुनवाई की जानी चाहिए, यह वक्त की मांग भी है।

सवाल यह है कि :- 

  • शीर्ष अदालत को राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर ऐसी नसीहत देने की जरूरत क्यों पड़ी?
  • क्या कोर्ट की इस नसीहत को व्यवहारिक रूप से लागू करने की कोशिश होगी?
  • आखिर अदालतें अन्य केसों की तरह राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मामलों की सुनवाई क्यों करती है?
  • क्या ऐसे मामलों में जांच से लेकर न्यायिक सुनवाई तक के लिए शीर्ष अदालत को कोई गाइड लाइन जारी करनी चाहिए?
  • क्या सुनवाई में देरी पीड़ित के न्याय पाने के नैसर्गिक अधिकार का उल्लंघन नहीं करती है?

राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर न्यायिक प्रक्रिया में देरी पर सुप्रीम कोर्ट ने न केवल सवाल उठाया है बल्कि पूरी जांच और अदालती कार्यप्रणाली को भी कठघरे में खड़ा कर दिया है। देश के खिलाफ साजिश करने और आतंकी हमलों समेत कई राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मुद्दों को लेकर शीघ्र सुनवाई के लिए अलग से कोई दिशा-निर्देश नहीं है। इसका फायदा आतंकवादी और देश विरोधी तत्व उठाते रहते हैं।

लाजपत नगर ब्लॉस्ट में हुई थी 13 लोगों की मौत

ऐसा ही फायदा 1996 में दिल्ली के लाजपत नगर के बम ब्लॉस्ट के दोषियों ने भी उठाया। इस विस्फोट में 13 लोगों की मौत हो गई थी जबकि 38 लोग घायल हो गए थे। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि यह मामला दुर्लभतम श्रेणी में आता है। लेकिन मामले में 27 साल की देरी और ट्रायल कोर्ट का फैसला आने में 13 साल लगना दोषियों की सजा कम करने वाली परिस्थितियां हैं।

साफ है यदि फैसला जल्द आता तो चारों दोषियों को उम्रकैद की सजा की जगह इससे कहीं अधिक कड़ी सजा मिलती। यह मामला तो एक बानगी भर है। ऐसे कई केस वर्षों से अदालतों में लटके हैं और बेहद धीमी गति से अन्य केसों की तरह चल रहे हैं। यह बेहद चिंताजनक स्थिति है क्योंकि जल्द फैसला नहीं आने के कारण देश के प्रति षड्यंत्र करने वाले और आतंकी हमले करने वालों के बीच कड़ा संदेश नहीं जाता है और वे देश की कानून और न्यायिक प्रणाली की कमजोरियों का फायदा उठाते हैं।

ऐसे में सुप्रीम कोर्ट की चिंता न केवल जायज है बल्कि इसके लिए तत्काल ठोस निर्णय लेने और प्रक्रिया में बदलाव की जरूरत है। भले ही सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में अदालतों को नसीहत दी है लेकिन उसका पालन तब तक नहीं हो सकेगा जब तक अदालतों को शीर्ष कोर्ट की तरह से सीधा आदेश नहीं दिया जाएगा। जाहिर है सुप्रीम कोर्ट और सरकार दोनों को इस विषय का हल निकालना होगा अन्यथा राष्ट्रीय सुरक्षा से समझौता होता रहेगा।

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