संपादकीय: क्षेत्रीय क्षत्रपों की महत्वाकांक्षाए
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भाजपा के खिलाफ मोर्चेबंदी शुरू कर दी है। वे लगातार क्षेत्रीय क्षत्रपों को साधने की कोशिश कर रहे हैं।
Sandesh Wahak Digital Desk। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भाजपा के खिलाफ मोर्चेबंदी शुरू कर दी है। वे लगातार क्षेत्रीय क्षत्रपों को साधने की कोशिश कर रहे हैं ताकि लोकसभा चुनाव के पहले एक सशक्त विपक्षी गठबंधन तैयार किया जा सके। वे कभी कांग्रेस आलाकमान तो कभी ममता बनर्जी के दर पर एकता का पैगाम लेकर पहुंच रहे हैं। हालांकि उनका लक्ष्य क्षेत्रीय पार्टियों के क्षत्रपों को साधने का अधिक दिख रहा है। यह दीगर है कि कांग्रेस मजबूरी में सही उनके साथ खड़ी दिख रही है।
सवाल यह है कि…
- क्या केवल मोदी और भाजपा हटाओ के नारे के दम पर विपक्षी पार्टियां लोकसभा चुनाव में कोई बड़ा परिणाम ला सकेंगी?
- क्या बिहार में लगातार अपनी सियासी जमीन खो रहे नीतीश कुमार का नेतृत्व विपक्ष के कद्दावर नेता स्वीकार करेंगे?
- क्या कांग्रेस, क्षेत्रीय क्षत्रपों की पिछलग्गू बनेगी? क्या अन्य दलों के नेता एकता के नाम पर अपनी महत्वाकांक्षाओं को दरकिनार कर सकेंगे?
- क्या नीतीश, विपक्षी एकता के नाम पर खुद की सियासी जमीन मजबूत करने की कोशिश कर रहे हैं?
लोकसभा चुनाव के पहले एक बार फिर विपक्षी एकता का झुनझुना जोर से बजाया जा रहा है। कभी भाजपा के सहयोग से बिहार पर शासन करने वाले नीतीश कुमार ने अब मोदी हटाओ की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली है लेकिन सियासत के समीकरण इतने आसन नहीं होते हैं। सच यह है कि जिन नेताओं से नीतीश कुमार एक छतरी के नीचे आने को कह रहे हैं, वे आज की तारीख में उनसे अधिक कद्दावर और जिताऊ हैं।
गैरभाजपा-गैरकांग्रेस मोर्चा बनाने में जुटी ममता
तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी भले ही नीतीश का साथ देने का वादा कर रही हों, वे चुनाव के वक्त मोर्चे में शामिल होंगी, इसे बहुत पुख्ता तरीके से नहीं कहा जा सकता क्योंकि ममता खुद राष्ट्रीय राजनीति में आने की कोशिश कर रही हैं और वे अलग से गैरभाजपा-गैरकांग्रेस मोर्चा बनाने में जुटी हैं। जहां तक आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल का सवाल है, उन्होंने पहले ही लोकसभा चुनाव अपने दम पर लडऩे का ऐलान किया है।
बसपा प्रमुख से मुलाकात पर नीतीश की चुप्पी
हालांकि सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने जदयू का साथ देने का वादा किया है लेकिन बसपा प्रमुख से मुलाकात पर नीतीश की चुप्पी बड़े सवाल खड़े करती है क्योंकि आज भी बसपा का जनाधार यूपी में कम से कम कांग्रेस से काफी अधिक है।
नितीश की घटती लोकप्रियता से कैसे जुड़ेगा विपक्ष?
जाहिर है, हर क्षेत्रीय क्षत्रपों की महत्वाकांक्षाएं हैं और वे एकता की छतरी के नीचे आएंगे, यह भविष्य ही बताएगा। दूसरी बात केवल मोदी हटाओ का नारा सियासी रूप से प्रभावी नहीं दिखता है। विपक्ष मोदी या भाजपा के खिलाफ आज तक कोई साझा एजेंडा या प्लान जनता के सामने नहीं पेश कर सका है। ऐसे में यह उम्मीद करना की जनता बिना बेहतर विकल्प के बड़ा परिवर्तन करेगी, खुद में बड़ा सवाल है। यही नहीं बिहार में नीतीश की लोकप्रियता काफी घट चुकी है, ऐसे में विपक्षी एकता कैसे जमीन पर तब्दील होती है, यह देखना दिलचस्प होगा।
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