संपादकीय: चुनावी वादे और सवाल
सियासी दलों को यह समझना होगा कि केवल वादे से नहीं बल्कि उन्हें जमीन पर उतारे बिना शहरों को बेहतर नहीं बनाया जा सकता है।
संदेशवाहक डिजिटल डेस्क। यूपी में निकाय चुनाव की बयार ने सियासी तापमान (Political Temperature) को बढ़ा दिया है। शहर की सरकार बनाने में तमाम दलों ने अपने-अपने प्रत्याशियों को मैदान में उतार दिया है। पहले चरण के चुनाव के लिए नामांकन भरे जा चुके हैं। प्रत्याशी अनगिनत वादे कर रहे हैं। जनता को एक बार फिर सत्ता के लिए सब्जबाग दिखाए जा रहे हैं। हर किसी का अपना एजेंडा है। सियासत में यह चलता है लेकिन असल सवाल अपनी जगह विद्यमान है।
सवाल यह है कि…
- क्या शहर की सरकारें जनता की कसौटी पर खरी उतरी हैं?
- वादों के सहारे सत्ता पाने वाले दलों ने क्या शहरों के कायाकल्प की दिशा में कुछ ठोस किया है?
- नगर निगम-पालिकाएं काम कम सियासत व भ्रष्टाचार का अखाड़ा अधिक क्यों बनी रहती हैं?
- कई दशक बीत जाने के बाद भी जनता को बुनियादी सुविधाएं क्यों नहीं उपलब्ध हैं?
- क्या जनता से किए गए वादों को पूरा करना सत्ताधारी दल की जिम्मेदारी नहीं है?
- क्या नगर निगम-पालिकाएं टैक्स वसूलने का जरिया भर हैं?
- क्या आने वाले दिनों में कोई सुधार होगा?
छोटे से लेकर बड़े शहर आज भी अस्त-व्यस्त
नगर निगम और पालिकाओं की स्थापना का सबसे बड़ा उद्देश्य बड़े और छोटे शहरों को सुव्यवस्थित करना है। शहर की जनता को बेहतर सुविधाएं उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी इनको दी गयी है। यही नहीं इसका शासन चलाने के लिए लोकतांत्रिक प्रक्रिया (democratic process) अपनायी गयी और जनता को प्रतिनिधियों के चयन का अधिकार दिया गया। उम्मीद की गई कि शहर के जनप्रतिनिधि लोगों की समस्याओं का निदान करेंगे और शहरी जीवन को बेहतर करने में अपना योगदान देंगे लेकिन हकीकत इसके उलट है। नगर निगमों और पालिकाओं के बावजूद छोटे से लेकर बड़े शहर तक अस्त-व्यस्त हैं।
प्रदेश के अधिकांश शहर अनियोजित विकास की ओर अग्रसर
मसलन, राजधानी लखनऊ को आज तक स्मार्ट सिटी (Smart City) में तब्दील नहीं किया जा सका है। गंदगी, जाम, अवैध पार्किंग, सडक़ों पर अतिक्रमण, स्वच्छ पेयजल का अभाव, अनियोजित विकास इसकी पहचान बन चुके हैं। यही हाल प्रदेश के अधिकांश शहरों का है। विभिन्न दलों की सरकारें आईं और गईं लेकिन शहर का कायाकल्प होने के बजाए हालात और भी बदतर होते चले गए। हां, यह जरूर हुआ है कि नगर निगम और पालिकाएं भ्रष्टाचार और सियासत का अड्डा (Base of corruption and politics) बन गयीं।
आम शहरी के हित और उनकी जरूरतों को हाशिए पर डाल दिया गया। वादों की पोटली से सत्ता में आयी सरकारें कुर्सी पर काबिज होते ही अपने हितों की पूर्ति में लग जाती हैं। अब जब एक बार फिर शहर की सरकार का गठन होना है, आम शहरी में बेहतर होने की उम्मीदें जगी है लेकिन यह तो वक्त बताएगा कि नयी गठित होने वाली सरकार इनकी अपेक्षाओं पर कितना खरा उतरती है।
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सियासी दलों को यह समझना होगा कि केवल वादे से नहीं बल्कि उन्हें जमीन पर उतारे बिना शहरों को बेहतर नहीं बनाया जा सकता है। यदि प्रदेश की अर्थव्यवस्था को रफ्तार देना है तो आर्थिक गतिविधियों की रीढ़ शहरों के संतुलित विकास पर फोकस करना होगा।
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