संपादकीय: दया याचिकाओं पर हीलाहवाली
संदेशवाहक डिजिटल डेस्क। सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर दया याचिकाओं के लंबित होने पर अपनी चिंता चिंता जाहिर की, साथ ही सरकार को निर्देश दिया है कि इन मामलों का जल्द से जल्द निपटारा किया जाए ताकि मौत की सजा पाए दोषी का भविष्य तय हो और पीडि़त को न्याय मिल सके।
सवाल यह है कि
- सुप्रीम कोर्ट को दया याचिकाओं पर देरी को लेकर बार-बार सरकार को निर्देश क्यों देना पड़ रहा है?
- क्या न्याय में देरी किसी अन्याय से कम नहीं है?
- क्या दोषी दया याचिकाओं के जरिए अपनी सजा को विलंबित करने का दांव खेल रहे हैं?
- क्या यह मौत की सजा के उद्देश्य को असफल नहीं कर रहा है?
- आखिर दया याचिकाओं को रोकने की वजह क्या है?
- क्या यह आम आदमी के न्याय पाने के अधिकार का उल्लंघन नहीं करता है?
- क्या मानवाधिकार और अन्य संगठनों के दबाव के कारण याचिकाओं को निपटाने में देरी की जा रही है?
ऐसा पहली बार नहीं है जब सुप्रीम कोर्ट ने दया याचिकाओं पर सरकार की हीलाहवाली को लेकर अपनी चिंता जाहिर की है। पिछले कई दशकों से दया याचिकाओं में देरी की प्रवृत्ति बढ़ी है। 1980 से पूर्व दया याचिका पर फैसला लेने में कम से कम 15 दिन और अधिकतम दस महीने का वक्त लगता था लेकिन 1981-88 की अवधि में यह बढक़र करीब चार साल तक हो गया।
इस स्थिति में सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया और दया याचिकाओं को तेजी से निपटाने के निर्देश दिए। इसका परिणाम यह हुआ कि 1989 से 1997 के बीच याचिकाओं के निपटारे की अवधि घटकर चार से पांच महीने हो गई लेकिन इसके बाद यह पुराने ढर्रे पर पहुंच गई। लिहाजा सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को फिर संज्ञान में लिया है।
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कोर्ट का मानना है कि इससे न्याय का सिद्धांत खंडित होता है और यह मौत की सजा सुनाए जाने के पीछे छिपे उद्देश्य को करीब-करीब नाकाम कर देता है। इसमें दो राय नहीं कि मौत की सजा पाने के बाद दोषी दया याचिका की अर्जी लगाकर मृत्युदंड से बचने की कोशिश करते हैं। इस दौरान कई बार कोर्ट उनकी सजा को कम या उम्रकैद में बदल देता है।
सच यह है कि इस मामले को सरकार गंभीरता से नहीं ले रही है। कई बार वह मानवाधिकार और अन्य सामाजिक संगठनों के दबाव में ऐसा करती है क्योंकि ये संगठन मांग कर रहे हैं कि देश से मृत्युदंड का प्रावधान खत्म कर दिया जाए। इसके अलावा कई मामलों में सियासी दांव-पेच भी चले जाते हैं और अपराधी की सजा को लेकर विपक्ष सत्ता पक्ष पर दबाव बनाने की कोशिश करता है।
बावजूद इसके यदि सरकार चाहे तो वह दया याचिकाओं को जल्द से जल्द निपटा सकती है। इसमें दो राय नहीं कि दोषी के सजा विलंबित रहने का असर पीडि़तों पर पड़ता है और वे खुद को ठगा महसूस करते हैं। साफ है सरकार को चाहिए कि वह सुप्रीम कोर्ट के आदेश को व्यवहारिक धरातल पर उतारे और पीडि़तों को समय रहते न्याय दिलाने में सहयोगी की भूमिका निभाए।
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